देव शयनी एकादशी। भारतीय संस्कृति की गहनता और गंभीरता का कोई सानि नहीँ हैं। ऋषियों और मुनियों ने वैज्ञानिक सोच के साथ जीवन दर्शन को प्रस्तुत किया है।
पहले एकादशी :- दश और एक। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ। ग्यारहवाँ मन है। देव शयन :- देवताओं को विश्रांति। देवता स्वयं अपनी बैटरी चार्ज करें और अपने अंशी का धयान धरें अर्थात अपने स्वयं की खोज में रत रहें। इस काल में सांसारिक मनुष्य इनसे भौतिक सुख-सुविधा की मांग न कर पाएं। आदेश देव-शयन में बाधक न बनें। ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियों के साथ मन का निग्रह कर शुद्ध चैतन्य का ध्यान-अभ्यास करना। चातुर्मास में केवल और केवल आत्म-कल्याणकारी कार्यों की अनुमति हैं। शुद्ध-आहार, सद विचार और व्यवहार। इस कालखण्ड में ऋषि-मुनि नदी नालों के भरपूर होने तथा मार्ग की कठिनाइयों के कारण प्राचीन काल में किसी बस्ती क्षेत्र में ठहर कर आत्म साधना के साथ साथ जन सामान्य का आध्यात्मिक मार्ग दर्शन करते। इसमें ज्ञान-चर्चा, योगाभ्यास, समाज-शिक्षण और स्वास्थ्य विज्ञान का शिक्षण हुआ करता था। साधकों को अपने गुरुजनों के सानिध्य में, उनकी कृपा की छाया में गहन और निर्विघ्न समाधि का लाभ मिल जाता था। इस प्रकार देव-शयनी एकादशी से देवोत्थानी एकादशी का सम्पूर्ण सत्र अध्यात्म और वसुधैव कुटुम्कम की भावदशा को निखारने का विलक्षण अवसर होता था। आओ हम भी प्रतिदिन कुछ क्षण अपने लिए निकालें। अपने आप से पूछें मेरा शरीर, मेरा मन, मेरा विचार इत्यादि कहने वाला कौन है ? बस इतनी ही खोज कर सकें जिसके लिए किसी पदार्थ, पैसे, यात्रा आदि की कोई जरूरत नहीं है। हाँ उत्तेजक प्रेरकों से बचें और नित्य किसी भी प्रकार की सेवा का सँकल्प पूर्ण करेँ। एकादशी और चातुर्मास का सम्पुर्ण फल प्राप्त होगा और आने वाले वर्ष पर्यन्त ऊर्जा का सघन बहाव उच्चता की तरफ बना रहेगा।
Kanhaiya Lal Vaishnav
Banswara Raj.
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