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Santh Shree Murlidhar Ji Vaishnav

6 जुल॰ 2013

आर्टिकल - क्या पशचिम की नकल को ही आधुनिकता कहते हैं। - श्रीमती पुष्पा हरी वैष्णव


  
हम भारतवासीयों को हमारे देश  पर गर्व हैं। क्योंकि बाकी सभी पषिचमी देशो  की तुलना मे हमारे आदर्श  उचे  हैं। हमारे जीवन मुल्य, हमारी प्रकृत्तिया   हमारे त्याग - बलिदान - भाई चारा- सहिष्णुता सबकी मिसालें अनुठी हैं। हम जीयो और जीने दो मे  विशवास  रखने वाले लोग हैं। संभवत: इसलिये हम प्रार्थना भी ऐसी ही करते हैं कि - 
        सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:। 
 सर्वे भद्राणि पष्यनित, मा कषिचद दु:खभागभवेत।।

अर्थात - सब सुखी हो, सब निरोगी हो, सबका कल्याण हो, किसी को भी दु:ख प्राप्त न हो। कहने का तात्पर्य यह हैं कि हमारी संस्कृति  में स्वार्थ को तवज्जो नहीं दी गई  हैं। परोपकार करना हमारा गुण भी हैं और परम्परा भी।  परदु:ख कातरता को हम धर्म तथा पुण्य से जोड़ कर देखते हैं। पर याने दुसरे के लिये, दुसरों की मदद के लिये, हम त्याग करें, बलिदान करें 
यहीं हमे सिखाया जाता हैं और यही हमारे साधु, सन्त, फकीर और धर्म गुरु भी प्राचिनकाल से कहते आ रहे हैं। हम परोपकार की भावनाओं के तहत ही  विशव  का कल्याण चाहते हैं और पुरे ब्रह्माण्ड   में शान्ति  हो इसकी कामना करते हैं। 

आज हमारे भारत वर्ष मे भी  पश्चिमी  सभ्यता ने अपने पैर पसारने चालु कर दिये हैं। युवा वर्ग पुरी तरह स्व एवं स्वार्थ के दलदल मे फंस चुका हैं। परिणाम हमारे सामने हैं - हमारे संयुक्त परिवार टूट चुके हैं। रिश्ते  दरक रहे हैं। धन बटोरने और वैभव समेटने की होड़ लगी हैं। अपने ही अपनों का गला काट रहे हैं। माँ-बाप यातो प्रताडि़त हो रहे हैं या वृद्धाश्रम भेज दिये जा रहे  हैं और नीति-नियम, संस्कार- संस्कृति  की बातें या तो किताबों के हाषिए पर चली गई  हैं या खुंटी पर टांग दी गई  हैं। फलस्वरुप इस सदी में सर्वाधिक कपड़ा बननें के बाद भी बेटियाँ अधनंगी घूम रही हैं। नारी स्वतंत्रता के नाम पर बहुएँ बिना किसी मर्यादा के स्वतंत्र हो कर नही वरन स्वछंद हो कर घूम रही हैं। बिना किसी साथ, बिना पति या बिना परिजन के आधी आधी रात तक चलने वाली पार्टियाँ अटेण्ड कर रही हैं। वे सास, ससुर की नही वरन गोद मे बैठे कुत्तों के पिल्लों की सेवा करने को अपनी शान  समझ रही हैं। बेटे फेशन  के नाम पर शराब  को बीयर का नाम ले कर पी रहे हैं और पति चाबियों के छल्ले की अदला बदली के साथ बिवियाँ ही बदल रहे हैं। क्या पषिचमी सोच ने हमारी बुध्दी को कुंद कर दिया हैं ? या हम नकलची बंदर बन कर रह गये हैं ? आज की हवा उल्टी बह रही हैं अत: बुद्धीमान लोगशोकाकुल  हैं एवं सयाने वृद्धजन अवाक। राजनितिज्ञों को तो अपने स्वर्थ के आगे किसी बात की परवाह हैं नही और फिलासफर कह रहे हैं कि ये वक्त का तकाजा यही हैं। समाज शास्त्री  कह रहे हैं बदलाव तो आना ही था और आध्यात्म से जुड़े लोग कह रहे हैं कि यह तो अभी कलयुग की छाया ही हैं। बहरहाल हम अपनी संस्कृति की  होली जलाने को आतुर हैं और संस्कारों के जनाजे पर बैठ कर झुठमूठ के मगरमच्छ  के आँसू बहा रहे हैं। 

कहते हैं कि सुबह  का भुला यदि शाम  को घर  लौट आये तो उसे भुला नही कहते, या गलतियाँ अंजाने मे हो जाये तो उसकी सजा नही दी जाती हैं। अत: अभी भी कुछ नही बिगड़ा हैं। हमें अपनें गौरवशाली इतिहास का पठन पाठन फिर से करनो हैं। हमें अपनी त्याग, बलिदान, परोपकार की भावनाओं मे फिर से प्राण फुँकना है। क्योंकि यहीं भावनाएँ हमारीभारतीय संस्कृति  की मुलाधार हैं। माना कि सड़ी गली मान्याताओं और गंदलाती कुरीतियों को समाज से उखाड़ फेंकनें मे ही समझदारी हैं, परन्तु खरपतवारके साथ अच्छी फसल को भी उखाड़ फेंकना कहाँ की समझदारी हैं ? 
हम मनुष्य हैं परोपकार हमारा गुण होना चाहिये और मान मर्यादा, नीति नियम तथा जीवन मुल्य ही ऐसे  गुण हॆ । जो हमे  पशुओ  से अलग श्रेणी मे रखते हैं वर्ना तो - 

आहार, निंद्रा, भय, मैथुनंच सामान्यमेतत पशु  भिर्नराणाम। 

मानवता का उदेश्य  और मानव जीवन की सार्थकता विचारों के परिमार्जन द्वारा पशचिमी  जीवन जीनें मे ही हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी क्या खुब कहा हैं कि - 

परहित सरिस धरम नहीं भार्इ। पर पिड़ा सम नहि अधमाई ।। 

तो इस तथाकथित आधुनिक युग मे हम अपनों से ही छल करके और अपनों को ही दु:ख या पीड़ा पहुँचा कर क्या सिद्ध करना चाह रहे हैं ?

श्रीमती पुष्पा हरी वैष्णव 
अग्रवाल कालोनी, सेंधवा 
मो. 09425415855

अखिल भारतीय वैष्णव ब्राह्मण सेवा संघ की राष्ट्रीय कार्यकारणी बैठक की जलकिया ।

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